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ग़ज़ल - लाश उठाये हैं हम मुर्दा संविधान की....

लाश उठाये हैं हम मुर्दा संविधान की....कन्धों पर |
शासन की है ज़िम्मेदारी.......गूंगों, बहरों,अंधों पर ||

लेकर जिनकी आड़ ताज़ पर...डाका डाला चोरों ने,
श्रद्धा या उम्मीद हमें है...अब भी उन अनुबंधों पर ||

हमने अपनी नस्ल बेच कर,ये स्वभाव है ओढ़ लिया,
बन कर के गलीच, इतराते.....फिरते हैं दुर्गंधों पर ||

ज़िस्म लिए हम इंसानों का...पशु से नीचे उतर गये,
शर्म नहीं अब हमको अपने....ऐसे गोरखधंधों पर ||

गाली देते धर्म - न्याय को....हम विकास के दावों में,
सिद्धांतों की जगह तर्क के.. कब्ज़े हैं प्रतिबंधों पर ||

जिनके खुद के चाल- चलन हैं अपराधों से सने हुये,
वो समाज को,भाषण देते,नैतिक-नीति निबंधों पर ||

गुण अब गौरव नहीं हमारे,हैं कलंक की कालिख ये,
जान-प्राण लुटते हिरणों के...कस्तूरी की गंधों पर ||

संकट में है...कोमल काया, सुंदरता अभिशाप बनी,
भँवरों नहीं, भेड़ियों की हैं नज़रें आज सुगंधों पर ||

कर्तव्यों को छोड़,ओढ़ के,अधिकारों की चादर अब,
ध्यान हमारा है अब केवल खुद के लिए प्रबंधों पर ||

आओ-आओ,लौटो-लौटो,फिर विवेक की राह चुनो,
और न अब विश्वास करो तुम,मुर्दों और कबन्धों पर ||

रचनाकार - अभय दीपराज
Mob - 9893101237

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